जिस तरह से जिंदगी आज सबकी बातों का मुकाम बन गयी है, हर पल एहसास
होता है की मैं अब बड़ा हो चला हूँ . जीवन की दीवारें न जाने क्यों इस मौसम
में फीकी सी पड़ रही हैं. नहीं-नहीं कृप्या मेरे पेंट मैं खामी न निकालें
और न ही मौसम की रुसवाई का बहाना दें. दोस्तों को बातें करता देख और सुन
मैं भी कहने को ही सही पर बड़ा हो चला हूँ.
इस गर्मी में छुट्टियां तो भूल ही जायो, बस कहीं सोने का ठिकाना मिल
जाये तो यह ही अच्चम्भित करने योग्य होगा. क्या करे साहिब इंजीनियरिंग में
आई.आई.टी के बाहर भी तो बहुत बड़ी दुनिया होती हैं..बस हम उसी के बाशिंदे
हैं. अब कीजियेगा भी तो क्या? जो कर सकते थे उसे करने की तसल्ली दिल ने
लेने न दी. और जो अब कर सकते हैं उसे करने की शिद्दत तो दिल में हैं परन्तु
साथ में "परन्तु" भी है!
चलिए फ़र्ज़ कीजिये हम अपना मुकाम ढूँढने निकल गए अपनी बस्ती से बिना
लॉव-लश्कर के. जानते हैं जहां भर की बाते सुन्नी पड़ेंगी लेकिन दिल ने तो
अब इनसे घबराना ही छोड़ दिया है. डर फिर भी है मुझे..जानता हूँ, करने का
माद्दा भी रखता हूँ. बस जब माँ-पापा का ख्याल आता है तो कदम पीछे खींचने की
हिम्मत आ जाती है. समझ नही आता की किस प्रकार निरंतरता का साथ दे पाउँगा?
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